Wednesday 13 September 2017

किसान आंदोलन

#kisaan aandolan
किसान -एक ऐसी मजबूरी,जो अपनी मौत नही मर रही । तंगहाल जीवन,कर्जे का बोझ ,सरकारों का शोषण उसे आत्महत्या करने को विवश कर देता है।
मार्क्स ने ठीक कहा था दुनिया के गरीबो इक्कठे हो जाओ क्योकि आपके पास खोने को कुछ नही है।
मर तो वैसे भी रहे है,हरित क्रांति कोई फायदा नही दे रही है चलो लाल क्रांति करते है ।
लेकिन इसके लिए अच्छे नेता की जरूरत होती है जो इस लायक हो। और शायद ऐसे नेताओं की कमी है ।जब-जब कोई ऐसा करने की हिम्मत करता है उसे मार दिया जाता है ,मार कर भी भुलाने की साजिश होती है ।मुक्तिबोध इनमे से एक है,अभी उनकी जयंती थी लेकिन सरकार ने उनको याद करना तो दूर उनके स्टेच्यू को भी खंडित करवा दिया ।अक्सर जब-जब सरकारे बदलती है तो महापुरुष भी बदल जाते है।लेकिन ये बड़ी विचित्र सरकार है जो गरीबों,किसानों के लिए लिखने वाले एक कवि को नजरअंदाज करती हैं और गांधी के हत्यारों की जयंती मनाती है । गाँधी का सपना था कि अमीर ग़रीब के बीच की खाई कम हो तभी देश तरक्की कर सकेगा।गाँधी को मार दिया अब सरकार उनके सपनों को मार रही है -भूखे, बेघर,गरीब, किसानों पर बुलेट ट्रेन चलाकर ।
जिस देश की आधी आबादी भूखी सोती हो,किसान आत्महत्या कर रहे हो, उस देश की सरकार की क्या प्राथमिकता  होनी चाहिए ये एक बच्चा भी बता सकता है। बेशक बुलेट ट्रेन तो हरगिज़ नही ।
एक और काम जो सरकार बेहतर तरीके से कर रही है वो है- लोगो को बेवकूफ बनाना।सरकार की योजनाएं ऐसी रहती है जो बाहरी तौर पर बड़ी अच्छी लगती है लेकिन भीतर से खोखली ।क्योकि सरकार जानती है कि इस देश के लोगो को बेवकूफ बनाना आसान है ।यहाँ केवल योजना का उद्देश्य ही देखा जाता है,उसके नियम ,निष्कर्ष और परिणाम कोई नही देखता ।नोटबन्दी इसका अच्छा उदाहरण है ।UP में कर्जमाफी भी इसमें से ही एक है जहाँ UP के गरीब किसानों के साथ बेहूदा मज़ाक की गई ।
सीकर किसान आंदोलन 14 दिन चला लेकिन मीडिया जानबूझकर अनजान रहा क्योंकि किसान tv नहीं देखते और न ही अंग्रेजी अखबार पढ़ते है,यह मीडिया की नपुंसकता है। खैर अब मीडिया ,मीडिया नही रहा क्योकि मीडिया का काम सत्ता को आईना दिखाना होता है न कि सरकार के तलवे चाटना ।गोदी मीडिया से यह उम्मीद करना भी बेमानी होगा। लेकिन अब मीडिया खूब चिल्लाएगा की सरकार ने 50 हजार तक कर्ज़ माफ कर दिया लेकिन जो हकीकत बताना मीडिया का काम है उससे शायद अनजान ही है कि कर्ज माफी अंतिम समाधान नहीं है।यह घाव पर मरहम जरूर है लेकिन घाव अब भी बरकरार है और यह तभी भर सकता है जब स्वामीनाथन कमीशन के अनुसार फसलो की लागत उत्पादन मूल्य से डेढ़ या दो गुना तय हो जाय ।और यही इस आंदोलन की ग्यारह सूत्री मांगों में प्रमुख था जिसे सरकार ने एक बार फिर बेहद चालाकी से  टाल दिया और इसे कर्ज़माफी से ढक दिया। कर्ज़माफी  ग्यारह सूत्री मांगों में शायद इतना महत्वपूर्ण भी नही था ।
कर्ज़माफी ऊंठ के मुँह में ज़ीरा है।एक बार कर्ज माफ हो जाने से किसान की हालात अच्छी हो जाएगी, ऐसा सम्भव नही है क्योंकि कर्ज़माफी से फसलों का नष्ट होना नही रूक जाता ।
फिर इस आंदोलन से मिला क्या? यह सोचने वाली बात है।नेताओ को श्रेय चाहिये था और राजनीति चमकानी थी वो काम जरूर पूरा हुआ है और अंतिम समाधान नही मिलने से उन्हें अगले आंदोलन के लिए जमीन भी मिल गयी ।
किसान आखिर माँग ही क्या रहे थे ?यही ना कि उनके द्वारा उत्पादित फ़सल की रेट वे खुद तय करे ?जानलेवा वस्तुओं की कीमत भी जब उनकी कंपनी तय कर सकती है तो अन्न ,जो हमारी पहली आवश्यकता है,की कीमत अन्नदाता क्यों तय नहीं कर सकता ?   2014 के चुनाव में नरेन्द्रमोदी बार-बार कहते रहे थे कि अगर उनकी सरकार सत्ता में आती हैं तो वह स्वामीनाथन आयोग को दुरस्त करेंगी ।लेकिन सरकार बनने के बाद स्वामीनाथन कमीशन को लागू करना तो दूर की बात ,कृषि को ही राज्य का विषय बताकर किसानों के विरोध को भी नही सुना जा रहा है। क्या चुनाव से पहले उन्हें नही मालूम था कि कृषि राज्य सरकार का विषय है? किसानों और गरीबो का इसी तरह इस्तेमाल होता है।जंतर मंतर पर आए दिन किसान मुँह में चूहे डालकर, सड़को पर प्याज़, टमाटर उड़ेलकर बता रहे है कि हम मर रहे है और सरकार इस पर कोई ध्यान नहीं दे रही ।
कृषि बीमा योजना का ढ़िढोरा सरकार जरूर पिट रही है लेकिन इसमें भी किसानो को नियमों के फेर में उलझाकर बेवकूफ़ ही बनाया जा रहा है।अब तो किसानों को अकाल,अतिवृष्टि के नाम पर मिलने वाला मुआवजा भी नही मिल रहा।खाद बीज भी किसान तक पहुँचते पहुँचते बीच मे ही पूरा हो जाता हैं।
जो किसान मौसमी खेती पर निर्भर रहते है वे बाकी समय बेरोजगार रहते है क्योंकि अब मनरेगा की हालत भी कांग्रेस जैसी हो गयी है।पहले पशुपालन उनका सहारा था गौरक्षा के नाम पर अब उसे भी छीन लिया है।आवारा पशु भी एक बड़ा मुद्दा है।सरकार न तो खुद इन पशुओं के लिए कोई इंतजाम करती है और न ही किसी को करने देती है इसलिए ये पशु किसानों के लिए नाक का नासूर बनें हुए है
  बिजली की बढ़ी हुई दरों और टोल टैक्स में ही किसान पूरे नही पड़ पा रहा और डार्क जोन और ज्यादा मुश्किले बढ़ा रहा है।
जब इन सब बातों को सरकार नही सुन पाती हैं तो शायद इसके अलावा कोई विकल्प नही बचता कि हम इक़बाल का यह गीत गाये और न सिर्फ गाए बल्कि अमल भी करें.....#क्रांति...

उट्ठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो
ख़ाक-ए-उमरा के दर-ओ-दीवार हिला दो

गरमाओ ग़ुलामों का लहू सोज़-ए-यक़ीं से
कुन्जिश्क-ए-फिरोमाया को शाहीं से लड़ा दो

सुल्तानी-ए-जमहूर का आता है ज़माना
जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आये मिटा दो

जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी
उस ख़ेत के हर ख़ोशा-ए-गुन्दम को जला दो

क्यों ख़ालिक़-ओ-मख़लूक़ में हायल रहें पर्दे
पीरान-ए-कलीसा को कलीसा से हटा दो

मैं नाख़ुश-ओ-बेज़ार हूँ मरमर के सिलों से
मेरे लिये मिट्टी का हरम और बना दो

तहज़ीब-ए-नवीं कारगह-ए-शीशागराँ है
आदाब-ए-जुनूँ शायर-ए-मश्रिक़ को सिखा दो

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